संस्कृत साहित्य की प्रवाहमान धारा अष्टमशती से षोडश शती पर्यन्त युग परिवर्तन के लिए विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इस युग में काव्य की रससिद्ध शैली तथा कविधन विदग्धता का स्थान आलङ्कारिक शैली तथा पाण्डित्य प्रदर्शन की प्रवृत्ति ने ग्रहण कर लिया था। इस कालावधि में यमक तथा श्लेष प्रधान काव्यों की रचना हुई। महाकवि भारवि, माघ तथा श्रीहर्ष जैसे कवियों ने जहाँ मात्र एक सर्ग की रचना यमक अथवा श्लेष अलङ्कार का अवलम्बन लेकर की वहीं इस युग के कवियों ने रामायण तथा महाभारत की कथावस्तु को प्रस्तुत करने वाले इयथीं, यर्थी, पञ्चार्थी, सप्तार्थी तथा शतार्थी तक काव्यों की रचना श्लेष के आधार पर की। । प्रस्तुत ग्रन्थ में इसी शृङ्खला में विरचित धनञ्जय कवि कृत ‘द्विसन्धानम्’, संध्याकरनन्दिन् कृत ‘रामचरितम्’, कवि राजसूरि कृत ‘राघवपाण्डवीयम्’ तथा हरदत्तसूरि कृत ‘राघवनैषधीयम्’ की साङ्गोपाङ्ग समीक्षा प्रस्तुत की गई है। प्रस्तुत काव्य संस्कृत काव्यधारा के इस परिवर्तित युग की झाँकी प्रस्तुत करते हैं। उक्त ग्रन्थों में ‘द्विसन्धानम्’ तथा ‘राघवपाण्डीयम् है। ‘रामचरितम्’ में रामकथा तथा पालवंश के राजा रामकथा तथा पाण्डवपक्ष की कथा को साथ वर्णित करते रामपाल का चरित प्रस्तुत किया है। ‘राघवनैषधीयम्’ में रामकथा तथा राजा नल की कथा मात्र दो सग में वर्णित है। ये काव्य अपेक्षाकृत न्यून है।।
प्रस्तुत ग्रन्थ इन कवियों के व्यक्तित्व एवं कृतित्व, काव्यों की कथावस्तु तथा उपजीव्यकाव्य, कथावस्तु की नाट्यतात्विक परिणति, वर्णन प्रसङ्ग तथा सांस्कृतिक तत्त्वों की उपलब्धि, व्युत्पत्ति-वैभव एवं मौलिकता, श्लेष अलङ्कार का शास्त्रीय पक्ष उसके प्रयोग, श्लेषानुप्राणित अन्य अलङ्कार तथा उनकी स्वतन्त्र सत्ता रसानुभूति तथा छन्दोविचित को प्रस्तुत करते हुए काव्य-परम्परा में इनके महत्त्वपूर्ण योगदान को प्रदर्शित करता है।
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