भूमिका
आयुर्वेद के ज्ञान को पद्यात्मक रूप में रचित करना एक असंभव सा कार्य है जो कि आचार्य वाग्भट ने अष्टाङ्गहृदय के रूप में प्रस्तुत किया है। इस प्रकार की अद्भुत रचना आयुर्वेद शास्त्र के साथ साथ संस्कृत के सम्यक् ज्ञान से ही संभव है | संग्रह ग्रन्थ होने पर भी इसे बृहत्त्रयी में सम्मिलित कर चरक संहिता और सुश्रुत संहिता के साथ रखा गया है क्योंकि इसकी रचना में तन्त्रशैली का पूर्णतः पालन किया गया है | आचार्य वाग्भट ने उत्तरस्थान के अन्तिम अध्याय में लिखा भी है कि यह रचना आगम पर आधारित है अतः सन्देह रहित होकर इसका अध्ययन, अध्यापन और प्रयोग, मन्त्र की भाँति करना चाहिये। निर्णयसागरीय अरुणदत्त तथा हेमाद्रि टीकाओं सहित प्रकाशित अष्टाङ्गहृदय के अनुसार इस ग्रन्थ में कुल ६ स्थान, १२० अध्याय और ७४७१ सूत्र हैं।
आयुर्वेद शास्त्र के अध्ययन में सम्यक् पठन इसका प्रथम चरण है जो कि इसके अर्थ ज्ञान में भी सहायक होता है। आचार्य, पद्यों के लयबद्ध पठन और उसे हृदयगम्य बनाने हेतु इसकी रचना विभिन्न छन्दों के आधार पर करते हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ में सूत्रों में वर्णित विषय के साथ साथ उसमें प्रयुक्त छन्द को भी बताया गया है जिससे पठन करते समय पाठक को सूत्र का विषय तथा लय दोनों का ज्ञान हो | सूत्रों के लयबद्ध पठन से इसका उच्चारण भी शुद्ध होता है और यह सरलता से हृदयस्थ भी हो जाता है। अष्टाङ्गहृदय के सूत्रों में प्रयुक्त छन्दों का ज्ञान अरुणदत्त द्वारा वर्णित टीका ‘सर्वाङ्गसुन्दरा’ से मिल जाता है। छन्द को वेद का पाद कहा गया है इसका मूल ग्रन्थ पिङ्गल ऋषि प्रणीत छन्दःशास्त्र है। अन्य अनेक ग्रन्थ यथा वृत्तरत्नाकर, वृत्तकौमुदी, छन्दोमञ्जरी आदि में इसकी विस्तृत व्याख्या मिल जाती है। प्रस्तुत ग्रन्थ के अन्त में अष्टाङ्गहृदय में प्रयुक्त छन्दों का सामान्य परिचय भी दिया गया है।
प्रस्तुत ग्रन्थ में किसी प्रकार की त्रुटी ना हो इसका पूर्ण प्रयास किया गया है किन्तु भूलवश यदि कहीं त्रुटी हो गयी हो तो इसके लिये विद्वजनों से क्षमा याचना है।
अखिलेश शुक्ला
अनुपमा शुक्ला
जयशंकर मुण्ड
रत्नप्रभा मिश्रा
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