भारतीय संस्कृति की वैदिक धारा सर्वथा प्रवृत्ति मार्गी रही, क्रमश: कर्मकाण्डों की जटिलता ने जन-मन को नवतम मार्ग की अन्वेषणा हेतु विवश किया। इसी नव वैचारिक प्रवृत्ति की प्रत्याशा ने प्राचीन भारतीय जन-गण को जैनधर्म एवं बौद्ध धर्म की ओर प्रतिश्रुत किया। इस नये धर्म में श्रम पूर्वक जीवन यापन एवं तपस्या के जिस साधना का प्रवर्तन हुआ, उसे पाणिनि ने श्रमण शब्द से अभिहित किया। जैन एवं बौद्ध साहित्यों से श्रमण परम्परा की विस्तृत सूचना प्राप्त होती है। कालान्तर में लोक व्यवहार में इन धर्मों (जैन एवं बौद्ध) ने श्रमण शब्द को सम्बोधन का माध्यम बनाया। श्रमण संस्कृति अपनी पहचान वैदिक संस्कृति से अलग रखती हैं। इसकी लोक प्रचलित भाषा प्राकृत’ बनी।
इसी को दृष्टि में रखकर भारतीय संस्कृति पर जैन एवं बौद्ध परम्परा का प्रभाव’ विषयक राष्ट्रीय संगोष्ठी में पढ़े गये शोध पत्रों पर विचार-विमर्श उपरान्त प्राप्त निष्कर्षो का संकलन यह कार्यवृत्त ‘Proceeding’ है। पुस्तक दो भागों में (हिन्दी भाषा के शोधपत्रों एवं आंग्ल भाषा के शोध पत्रों) व्यवस्थित है। ग्रन्थ में कुल 78 शोध लेख अपने विषयगत पक्षों को प्रस्तुत कर रहे हैं।
यह पुस्तक विद्यार्थियों, शोधार्थियों, सामान्य जिज्ञासुओं एवं विभिन्न अनुशासनों के आचार्यगण के लिए उपयोगी होगी। साथ ही ग्रन्थालयों के सन्दर्भ ग्रन्थ के रूप में पुस्तक अत्यधिक महत्वपूर्ण एवं संग्रहणीय रहेगी।
23 cm xxviii+ 468; चित्र
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