स्वकीयम्
आज संस्कृत व्याकरण की पाठ्यपुस्तकों के रूप में जो भी पुस्तके उपलब्ध हैं, वे धातुरूप तो देती हैं, परन्तु उन्हें बनाने का विज्ञान क्या है, इसे नहीं बतलाती । दस गण के धातुओं के अलग अलग विकरण और उनके अलग अलग अङ्गकार्य ज्ञात न होने से ये धातुरूपवलियां और कृदन्तरूपवलियां रटना, इतना भयावह हो जाता है कि छात्र उस व्याकरण से ही पलायन करने लगता है, जो समस्त शास्त्रों का मूल है।
एक बात और, आज उपलब्ध सारी पुस्तकें धातुओं की सूची अकारादि कम से बनाती है। उनकी कृदन्तावलि भी अकारादि क्रम से ही बनती है, जो कि अत्यन्त अवैज्ञानिक है क्योंकि धातु से जब कोई भी तिङ् या कृत् प्रत्यय लगता है, तब वह प्रायः धातु के आदि के अक्षर को देखता ही नहीं है अपितु वह धातु के अन्तिम अक्षर को देखता है। जैसे- मकारान्त गम् धातु से क्त प्रत्यय लगाकर गत बनता है, तो मकारान्त रम्, यम्, नम्, धातुओं से रत, यत, नत ही बनेंगे, यह सिद्धान्त है. ऋकारान्त कृ धातु से कृत बनता है, तो अन्य ऋकारान्त ह्य, वृ, भृ, धृ, मृ आदि धातुओं से हृत, वृत. भृत, धृत, मृत ही बनेंगे, यह बात एक बच्चा भी समझ सकता है, किन्तु यदि हम इनमें से कृत को ककारादि धातुओं में डाल दें, हृत को हकारादि धातुओं में डाल दें, मृत को मकारादि धातुओं में डाल दें, घृत को धकारादि धातुओं में डाल दें, वृत को वकारादि धातुओं में डाल दें, तो इनके रूप तो छात्र जान जायेगा, किन्तु उन्हें बनाने का विज्ञान क्या है, जिसे जानकर वह स्वयं बना लें, कभी नहीं जान पायेगा।
उसका परिश्रम उसके लिये बोझ न बने, इसके लिये आवश्यक है कि तिडन्त तथा कृदन्त बनाने का कार्य धातुओं के अन्तिम अक्षर के कम से ही किया जाये।
एक बात और! आज विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रमों में तिङन्तप्रकरण तो है नहीं, और उसे छोड़कर कृदन्तप्रकरण पाठ्यक्रम में है। यह घोर विसंगति है, क्योंकि कौमदी में कृदन्त का जो प्रकरण है, वह तिङन्त पर सर्वथा आश्रित है जो सूत्र तिङन्तप्रकरण में कहे जा चुके हैं, उन्हीं सूत्रों को लेकर कृदन्त के सूत्र प्रवृत्त होते हैं। सीधे कृदन्त में प्रवेश करने वाला छात्र सार्वधातुक तथा आर्धधातुक संज्ञाओं को भी नहीं जानता है, क्योंकि ये संजा तिडन्त में बतलाई जा चुकी हैं। सार्वधातुकार्धधातुकयोः” पुगन्तलघूपधस्य च’ ‘अत उपधाया:’ और ‘अचो ञ्णिति’ जैसे निरन्तर काम में आने वाले अङ कार्य के सूत्र भी तिडन्त में कहे जा चुके होने के कारण कृदन्त का अधिकतम कार्य वस्तुतः छात्र के लिये बुद्धिगम्य ही रह जाता है।
अत: सीधे कृदन्त में प्रवेश करने वाले छात्रों के लिये और तिडन्त को छोडकर सीधे कृदन्त पढाने वाले शिक्षकों के लिये भी एक नवीन विधि की आवश्यकता थी।
दूसरी बात यह कि कौमुदी में एक सूत्र का एक उदाहरण देकर बाकी सब पाठक की बुद्धि पर छोड़ दिया जाता है, कि वह स्वयं बना ले । यथा ‘ण्वुल्तृचौ’ सूत्र को जान लेने वाले छात्र को सारे धातुओं से जो तथा तृच् प्रत्यय लगाना आ ही जाना चाहिये किन्तु कौमुदी प्रक्रिया से कृदन्त को पढ़ने वाला पाठक केवल कारक और कर्ता, ये दो शब्द ही बना पाता है, वह भी रटकर। अत: कौमुदी खण्ड-खण्ड करके पढ़ने का ग्रन्थ ही नहीं है। इसलिये भी एक नवीन विधि की आवश्यकता थी। उसकी पूर्ति इस ग्रन्थ से होती है। आज विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रमों में तिङन्तप्रकरण न होकर केवल कुछ धातुओं के रूप रटने के लिये दे दिये गये है, किन्तु जितना समय रटने में लगता है, उससे कम समय में यदि सारे धातुओं के रूप बनाना हम बतला देते हैं, तो इसे अप्रयत्नेन कृतार्थता समझना चाहिये।
यह भगवत्कृपा से तथा गुरुजनों के अनुग्रह से प्राप्त विद्या है, जिसमें हमने अजन्त धातुओं का वर्गीकरण अन्तिम अक्षर के कम से कर दिया है तथा हलन्त धातुओं का वर्गीकरण उपधा के कम से कर दिया है। इस प्रकार धातुओं के कुल १३ वर्ग बना दिये हैं ऐसा कर देने से अत्यंत लाभ यह हुआ है कि एक-एक धातु का रूप रटना नहीं पड़ता। एक धातु के रूप बनाने की प्रक्रिया जानते ही छात्र उसी के समान सैकड़ों कप स्वयं बोलने लगता है।
अत्यन्त वैज्ञानिक विधि से व्याकरण के इस कार्य को हमने क्रम से दो स्तरों पर किया है – शीघ्रबोधव्याकरण और अष्टाध्यायी सहजबोध । अष्टाध्यायी-सहजबोध में पाणिनीय अष्टाध्यायी के सारे सूत्र है और शीघ्रबोध व्याकरण में संक्षिप्त विज्ञान है विश्वभाषा संस्कृत के विराट् वाङ्ग्मय में जन जन का प्रवेश हो सके, इस दिशा में यह यत्न है।
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