वैदिक चिन्तन की परम्परा

Original price was: ₹795.00.Current price is: ₹635.00.

AUTHOR/EDITOR Nilima Pathak
EDITION 2016
LANGUAGE
Sanskrit Text with Hindi Translation
PAGES 300
BINDING HARDBOUND
ISBN 9788177023923
PUBLISHER PRATIBHA PRAKASHAN
Category:

आज का मानव जितनी उत्सुकता और तेजी से भौतिक विज्ञान की ओर बढ़ रहा है, उतनी ही तेजी से उसके भीतर की संवेदनाएं समाप्त होती जा रही हैं, मानवीय मूल्यों का हनन होता जा रहा है।
वेद भारतीय संस्कृति के उदगम केन्द्र हैं। जब तक वैदिक-उपलब्धियों से भारतीय सांस्कतिक विश्वास सिंचित होता रहा तब तक हमारे बाह्य (भौतिक) और आन्तरिक (आध्यात्मिक) जीवन में पूर्णता का समन्वय था, हमारे व्यवहार में उदात्तता थी। लेकिन कालान्तर में जैसे-जैसे वेदों के अक्षय अनन्त ज्ञानविज्ञान के प्रति हममें उदासीनता बढ़ती गई वैसे-वैसे हमारा समाज विवेकशून्य होता गया, विकृत होता गया।

वैदिक साहित्य की सांस्कृतिक चेतना ने जीवन को अखण्ड मानते हुए न तो शरीर की उपेक्षा की और न ही आत्मा की। इसने हमें बताया कि तप और श्रम से युक्त अर्थ और काम मानव-जीवन के व्यावहारिक विकास पथ को प्रशस्त बनाती हैं। तप और श्रम से हीन अर्थ और काम व्यक्ति को भोगी और उच्छंखल बना देते हैं, जिससे समाज में विश्वासहीनता बढ़ती है।
वेदों की संस्कृति में धर्म को जीवन के हर क्षेत्र में व्यापक स्थान मिला है। यही कारण है कि हमारे मनीषियों ने प्रकृति में सर्वत्र अपने आराध्य देव का दर्शन किया है, अपने पारिवारिक संबंधों का अनुभव किया है। वस्तुतः वैदिक चिन्तन परम्परा में प्रकृति और मनुष्य को अलग-अलग कर नहीं देखा गया है इसीलिए अनेकता में अनुस्यूत एकता को अपनी अन्तर्दृष्टि से देखता हआ वैदिक ऋषि पूरे विश्व को एक नीड़ मानता है – ‘यत्र विश्वं भवत्येकनीडम्’ यही वेद की समग्र दृष्टि है।

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