अद्वैतसिद्धान्त सभी वेदान्त-सिद्धान्तों का मूल है। निर्विशेषाद्वैत, शुद्धाद्वैत आदि सिद्धान्त इसकी सुरम्य व आकर्षक शाखाएँ हैं। ऐसे सुदृढ़ मूल एवं कमनीय विविध शाखाओं वाले वेदान्तवृक्ष का खिला हुआ सुगन्धित, सुरम्य, तापत्रयविमोचक एवम् आह्लादक पुष्प और फल विशिष्टाद्वैत-सिद्धान्त है, जिसकी समन्वयरूपा, दिव्य व मनोहर सुगन्ध सम्पूर्ण उपनिषद्वाक्यों में ओत-प्रोत हो रही है। अधिकारी मुमुक्षु पुरुष की रुचि, योग्यता एवं सामर्थ्य के अनुसार प्रत्येक सिद्धान्त ग्राह्य है, किन्तु निखिल श्रुतियों का अशेषत: समन्वय विशिष्यद्वैत वेदान्त में ही निहित उस दिव्य विशिष्टाद्वैत वेदान्त का ही उज्ज्वल प्रकाशक तथा संस्कृत की 213 कारिकाओं में निबद्ध प्रस्तुत ग्रन्थ ‘वेदान्तकारिकावली’ हैं, जिसकी रचना दक्षिण भारत के मूर्धन्य विद्वान् श्रीवुच्विवेङ्कराचार्य ने लगभग दो सौ वर्ष पूर्व की। श्रीरामानुज सहस्राब्दी के पावन प्रसंग पर संस्कृत के युवा शोधकर्ता विद्वान् श्री अंकुर नागपाल (दिल्ली) ने उत्तम ग्रन्थ की सरस व सरल हिन्दी-व्याख्या प्रस्तुत की है, जिसका भारतवर्ष के मूर्धन्य विद्वानों व श्रीवैष्णव-सम्प्रदाय ने भूरिशः अभिनन्दन करके स्वागत किया है। यह सभी संस्कृत-प्रेमियों व विशिष्यद्वैत वेदान्त के छात्रों द्वारा निश्चितरूप से संग्राह्य व पठनीय है।
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