पुस्तक के विषय में
महाभारत कथा पाँच हज़ार वर्ष पहिले कौरव-पाण्डवों तथा उनके समर्थक देश-विदेश के राजाओं के बीच भीषण युद्ध और सर्वनाश की अत्यन्त दुखभरी कहानी है। महर्षि वेदव्यास ने अपनी आँखों से यह सर्वनाश और नर संहार देखा था। प्रस्तुत ग्रन्थ में उनदिनों के भारत की ऐतिहासिक, सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक और आर्थिक परिस्थितियों का भी उल्लेख है।
भारत के प्राचीन राजवंशों, जल प्रलय और सृष्टि की उत्पत्ति, इन्द्र और वृत्र का आख्यान, नल-दमयन्ती और सावित्री-सत्यवान की अमरकथाएं, विदुर नीति, अभिमन्यु-वध, भीष्म पितामह की शरशय्या और उनका स्वर्गारोहण, युधिष्ठिर का राज्याभिषेक, आपसी कलह से यादवों का सर्वनाश और द्वारका के समुद्र में डूबने आदि ऐतिहासिक प्रसंगों का रोचक वर्णन महाभारत कथा में है। धर्म और अधर्म के बीच निश्चय, धर्म और कर्म की गहन गति, गीता का उपदेश, अध्यात्म विद्या और योग आदि की भी सरल व्याख्या प्रस्तुत की गई है। महाराजा युधिष्ठिर से यशपाल तक के दिल्ली के राजाओं के शासन का समय तथा विक्रमी सम्वत् १२४९ में दिल्ली पर शाहबुद्दीन गौरी के आक्रमण आदि का संकलन भी ऐतिहासिक महत्त्व का है।
Content:
भूमिका
उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में पश्चिमी देशों के विद्वानों ने भारत पर आर्यों के आक्रमण की कल्पना करके वेदों, ब्राह्मणों, आरण्यक-ग्रन्थों, उपनिषदों, पुराणों और रामायण तथा महाभारत आदि प्राचीन भारत के वैदिक साहित्य और संस्कृत साहित्य के ग्रन्थों का काल-निर्णय १५०० ईसवी पूर्व से लेकर १५०० ईस्वी के बीच तक किया था। किन्तु बीसवीं शती के अन्तिम वर्षों में परातत्त्व शास्त्र के क्षेत्र में नई सचनाएँ मिलने के बाद अनेक पाश्चात्य-विद्वान भारत पर आर्यों के आक्रमण की कल्पना स्वीकार नहीं करते। इनमें ग्रैगरी पोशेल (Gregory Possehl), कोलिन रेनफ्रू (Colin Renfrew), डॉ० एस० पी० गुप्ता, डेविड फ्राउले (David Frawley), जार्ज स्टीन (George Fruestein) और प्रो० सुभाष काक आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। इसलिये भारत के प्राचीन ग्रन्थों के कालनिर्णय का अवैज्ञानिक और कपोलकल्पित आधार नष्ट हो चुका है। .. भारत के वैदिक साहित्य को समझने के लिये प्राचीन काल से ही कहा जाता रहा है कि इतिहास के ग्रन्थों से और पुराणों से वेदों का अर्थ भलीभाँति समझना चाहिये। किन्तु अल्पश्रुत से अर्थात् ऐसे अल्पज्ञ व्यक्ति से जिसे अनुश्रुति का ज्ञान नहीं होता उससे वेद भी डरते हैं कि कहीं यह मेरे अर्थ का अनर्थ न कर डाले__
इतिहास पुराणाभ्यां वेदार्थमुपद्व्हयेत्।
बिभेत्यल्पश्रुताद्वेदो मामयं प्रहरिष्यति।। -वायुपुराण
भारतीय परम्परा और विचारधारा के अनुसार रामायण और महाभारत को इतिहास कहा जाता है। किन्तु पाश्चात्य विद्वान और उनका अनुकरण करने वाले भारत के आधुनिक इतिहासकार महाभारत को होमर के ओडेसी और इलियड इन दोनों काव्यों से भी कम उपयोगी मानते हैं हालांकि महाभारत का आकार इन दोनों काव्यों से लगभग आठ गुना अधिक है।
महाभारत के बाद रामायण की घटना के बारे में पाश्चात्य विद्वानों का यह विचार भी भारत पर आर्यों के आक्रमण जैसी कल्पना ही है क्यों कि रामायण में महाभारत की किसी घटना या किसी राजा या पात्र आदि का नाम नहीं मिलता किन्तु महाभारत के आरण्यक पर्व में १८ अध्यायों का । पूरा रामोपाख्यान है जिसकी कथा लगभग वाल्मीकि रामायण जैसी ही है। महाभारत के इस प्रकरण से तथा स्थान-स्थान पर बिखरे पड़े अन्य उल्लेखों से स्पष्ट होता है कि महाभारत का युद्ध रामायण काल के काफ़ी बाद में हुआ था।
प्राचीन युग व्यवस्था के अनुसार भी सूर्य वंश के इक्ष्वाकु आदि राजा सतयुग में हुए थे। इक्ष्वाकु वंश के महाराजा सगर सतयुग के अन्त में हुए थे। त्रेता युग के अन्त में श्रीराम का जन्म हुआ था और द्वापर युग के अन्त में श्रीकृष्ण का। द्वापर युग के अन्त में अभिमन्यु के पुत्र परीक्षित हुये जिनका वंश निम के पुत्र क्षेमक तक २८ पीढ़ी तक चला।
कुछ इतिहासकारों ने वेदों में आये हुए सुदास आदि नामों के आधार पर रामायण और महाभारत का काल-निर्णय करने का प्रयत्न किया है। किन्त वेदों में रामायण और महाभारत का उल्लेख इसीलिये नहीं मिलता क्योंकि इन दोनों महाकाव्यों में वर्णित घटनाएँ वैदिक काल से बहुत बाद में हुईं। दूसरी ओर रामायण में स्पष्ट शब्दों में वेदों का उल्लेख किया गया है। किष्किन्धा काण्ड में सुग्रीव ने राम को आश्वासन दिया है कि पत्नी के वियोग का आपका दुःख जल्दी ही समाप्त हो जायेगा। मैं सीता को उसी प्रकार ढूंढ कर ले आऊँगा जिस प्रकार वेदों के नष्ट हुए ज्ञान को फिर प्राप्त कर लिया गया है
भार्यावियोगजं दुःखं नचिरात् त्वं विमोक्ष्यसे। अहं तामानयिष्यामि नष्टां वेदश्रुतीमिव।। -किष्किन्धा०, ६/५
उपरोक्त श्लोक से स्पष्ट है कि रामायण काल में वैदिक ज्ञान की पुन: स्थापना का कार्य भी किया गया था। महाभारत की ऐतिहासिकता कुछ पाश्चात्य तथा भारतीय विद्वान महाभारत की ऐतिहासिकता के सम्बन्ध में आज भी सन्देह करते हैं। किन्तु अत्यन्त प्राचीन काल से चली
प्रश्न है कि बुद्ध निर्वाण की तिथि ग्रीक इतिहासकारों के अनुसार क्यों मानी जाय और बौद्ध तथा भारतीय परम्परा की उपेक्षा क्यों कर दी जाय? सम्भवत: ग्रीक इतिहासकारों ने स्ट्राबो के विवरण के आधार पर चन्द्रगुप्त के राज्यारोहण का वर्ष ३२४ ईस्वी पूर्व निश्चित कर लिया। फिर ३८२ ईस्वी पूर्व और ३२४ ईस्वी पूर्व के बीच संगति बिठाने के लिये बौद्ध परम्परा के बुद्ध निर्वाण वर्ष ५४४ ईस्वी पूर्व में से ५८ वर्ष घटाकर ४८६ ईस्वी पूर्व मान लिया। स्ट्राबो के अनुसार डाईमेकोस (Deimachos) का मिशन मौर्य सम्राट् बिन्दुसार के समय में आया था। इसमें चन्द्रगुप्त के राज्यकाल के २४ वर्ष जोड़ दिये जिससे यह समय ३२० ईस्वी पूर्व हो गया। तथा डाईमेकोस-मिशन आने तक बिन्दुसार के राज्यकाल के चार वर्ष मानकर ३२४ ईस्वी पूर्व मान लिया।
किन्तु प्रश्न है कि बुद्ध निर्वाण के १६२ वर्ष बाद चन्द्रगुप्त के राज्यारोहण का निश्चय कैसे किया गया? ।
बौद्ध परम्परा के अनुसार बुद्ध निर्वाण के ९० वर्ष बाद महापद्म नन्द (कालाशोक) राजगद्दी पर बैठा। इसके दस वर्ष बाद धर्म सभा हुई। इसके बाद महापद्म नन्द ने और १८वर्षों तक राज्य किया। फिर उसके प्रथम पुत्र ने २२ वर्षों तक राज्य किया तथा अन्तिम नन्द राजा घननन्द ने भी २२ वर्षों तक राज्य किया। इस प्रकार ९०+१०+१८+२२+२२ = १६२ वर्ष तो बुद्ध निर्वाण के बाद तीन नन्द राजाओं के ही हुए। १६२ में से ९० वर्ष घटाने पर नन्द राजाओं का कुल राज्यकाल ७२ वर्ष ही आता है जबकि सभी पुराणों में लिखा है कि नौ नन्दों ने १०० वर्षों तक राज्य किया। इस प्रकार बुद्ध निर्वाण के बाद के ९० वर्ष और नन्द राजाओं के राज्यकाल के १०० वर्ष जोड़ने पर १९० वर्ष बनते हैं न कि १६२ वर्ष। बौद्ध और भारतीय परम्परा के अनुसार बुद्ध निर्वाण की तिथि ५४४ ईस्वी पूर्व पर कोई विवाद या मतभेद नहीं है। अत: कैण्टो की बुद्ध निर्वाण की तिथि ४८६ ईस्वी पूर्व और नन्द राजाओं का राज्य काल ७२ वर्ष मानना उचित नहीं होगा। इसलिये चन्द्रगुप्त के राज्यारोहण का वर्ष ३५४ ईस्वी पूर्व माना जाना चाहिये। मौर्य सम्राटों ने १३७ वर्षों तक राज्य किया। उनके बाद शुंग वंश के राजाओं ने ११२ वर्षों तक राज्य किया। शुंग वंश का अन्त १०५ ईस्वी पूर्व में हुआ।
लेखक के विषय में
डॉ सुभाष विद्यालंकार पूर्व कुलपति, गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय, हरिद्वार । मण्डी धनौरा (मुरादाबाद) के सुशिक्षित और सम्पन्न परिवार में 15 जनवरी, 1929 को जन्म। गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय में शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात् पत्रकारिता, कानून, उच्च शिक्षा, जनसम्पर्क, प्रशासन, प्रकाशन और समाज सेवा आदि अनेक क्षेत्रों में सक्रिय भूमिका। अन्तर्राष्ट्रीय और अखिल भारतीय संस्कृत सम्मेलनों, विश्वविद्यालयों तथा सामाजिक और सांस्कृतिक संस्थाओं द्वारा समय-समय पर आयोजित विचार गोष्ठियों में सम्बोधन। इंग्लैण्ड के कैम्ब्रिज, ऑक्सफोर्ड और लन्दन विश्वविद्यालयों तथा अमेरिका के येल, न्यूयार्क और जार्जटाउन विश्वविद्यालयों के प्राच्य-शास्त्र अध्ययन विभागों की सरस्वती यात्राएँ। ‘एनसाइक्लोपीडिया आफ हिन्दूइज्म’ में वेदाङ्ग से सम्बद्ध लेखों का प्रकाशन। योग, अध्यात्म और संस्कृत साहित्य के अध्ययन में विशेष रुचि।
Reviews
There are no reviews yet.