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प्रस्तावना
“भारतीय साहित्य तथा शिल्प में विश्वकर्मा” विषयक प्रस्तुत ग्रंथ बरकतउल्ला विश्वविद्यालय, भोपाल के सामाजिक विज्ञान संकाय के अन्तर्गत प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्व विषय में डी-लिट् उपाधि हेतु वर्ष 1999 में स्वीकृत शोध-प्रबन्ध का किञ्चिद् परिवर्धित प्रकाशित रूप है। उक्त शोध ग्रंथ विषयगत अध्ययन की दृष्टि से सर्वथा नवीन है। अभी तक इस विषय पर न तो कोई शोध-लेख, न ही कोई शोध-कृति प्रकाश में आई है और न तो विगत पाँच वर्षों की शोध-यात्रा में प्रामाणिक उल्लेखनीय संदर्भ ही दृष्टिगोचर हुआ। प्रारम्भ में इस विषय को डी. लिट. अनुसंधान हेतु चुनते समय अनेक विचिकित्सायें मानस पटल को विभ्रम के आघात-प्रत्याघात से झंकृत करती रहीं किन्तु, भारती- विद्या का अध्येता होने के कारण “संप्रेरणार्थ संकल्पः” की नीति का अवलम्बन कर साहस को संजोता हुआ पद संचरण करता रहा और सृष्टि के देवता विश्वकर्मा की आराधना एवं सर्जना के भाव को अंगीकार कर सामग्रियों के संकलन एवं तथ्य विश्लेषण का कार्य प्रारम्भ किया।
यह विचार सदैव मन को उद्वेलित करता रहा कि विश्वकर्मा से सम्बद्ध ब्रह्मा, प्रजापति, सूर्य, शिव, विष्णु पर अनेक या सहस्राधिक लेख तथा शोध कृतियाँ प्रकाश में आयीं, किन्तु, सृष्टि के निर्माता, जीव-जगत् के मूल सर्जनात्मक सभी तत्त्वों में विद्यमान, धर्म-संस्कृति-कला के आधार तत्त्व विश्वकर्मा देवता पर विद्वानों की शोधदृष्टि क्यों नहीं गई। मेरे इस मौलिक प्रश्न का समाधान प्रो. कृष्णदत्त बाजपेयी (सागर म०प्र०) ने 1992 में विषय की विस्तारित व्याख्या, चिन्तनपरक विश्लेषण तथा रूपरेखा प्रस्तुत कर शोध कार्य के लिये उद्यत करके किया। दूसरी ओर डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल के “विश्वकर्मा” विषयक एक लघु लेख ने अवधारणा को स्पष्ट करने में सहायता प्रदान किया। आनन्द कुमार स्वामी के ग्रंथों में विश्वकर्मा विषयक छिट-पुट संदर्भो की मौलिक अवधारणाओं ने मानसिक संबल प्रदान किया जो शिल्प विधा की व्याख्या में उपयोगी रहा।
शोध अध्ययन में यह तथ्य उद्घाटित हुआ कि “विश्वकर्मा” सामान्य अनुसंधान का विषय न होकर एक गंभीर चिन्तनपरक विषय है। इस विषय की प्रस्तुति ऐतिहासिक कालक्रम के अनुसार उद्भव एवं विकास की सामान्य शोध पद्धति से नहीं की जा सकती है बल्कि, भारतीय संस्कृति की सम्पूर्ण चिन्तनपरक व्याख्या तथा देव संकल्पना की व्यापक पृष्ठभूमि के तात्त्विक विमर्श और विश्लेषण से ही सम्भव है। इसी दृष्टि से विश्वकर्मा विषयक साहित्यिक संदर्भो की प्रस्तुति तथा व्याख्या में विषय के मौलिक चिन्तन के द्वारा तथ्यों के विश्लेषण एवं विवेचन का विनम्र प्रयास किया गया है।
विषय की आरम्भिक रूपरेखा सुनिश्चित करते समय भी अनेक कठिनाइयाँ सम्मुख उपस्थित हुईं क्योंकि, भारतीय साहित्य एवं शिल्प में विश्वकर्मा देवता का सर्जक एवं शिल्पदेवता का ही स्वरूप प्राप्त होता है तथापि दस अध्यायों में उनके विविध पक्षों के संस्पर्श तथा विविध पक्षों से विवेचन का प्रयास किया गया है। पुराकथात्मक विवरणों एवं संदर्भो के विवेचन में सावधानी रखी गई है। साथ ही वैदिक एवं पौराणिक पुराकथाशास्त्र के विवेचन में विश्वकर्मा के सम्बन्ध में प्राप्त तथ्यों को भारतीय चिन्तन की व्यापक दृष्टि से देखा गया है। इसलिए मिथक एवं यथार्थ रूपों के विश्लेषण में एक ही सामग्री को कई प्रकार से विवेचित किया गया है। उल्लेखों में वैविध्य का सर्वत्र अभाव होने के कारण विविध स्वरूपों के विवेचन तथा प्रस्तुति में संदर्भो की आवृत्ति नहीं रोकी जा सकी है। इसे पुनरुक्ति दोष नहीं माना जा सकता क्योंकि प्रत्येक अध्याय में तथ्य विवेचन का आधार तथा दृष्टि भिन्न है।
इस ग्रन्थ में मूल स्रोतों के आधार पर ही विश्वकर्मा की अवधारणा को विकसित करने का प्रयास किया गया है। अतिरञ्जित या अतिशयोक्तिपूर्ण विवरणों को तथ्यपरकता के आधार पर यथार्थ रूप के साथ जोड़कर देखने का प्रयास किया गया है। इस दृष्टि से वैदिक, पौराणिक, संस्कृत, जैन एवं बौद्ध ग्रंथों का आद्योपान्त अध्ययन कर तथ्यों का विश्लेषण करके विश्वकर्मा विषयक स्रोत-सामग्रियों को निकालकर विश्वकर्मा के देव-स्वरूप के निर्माण का शोधपरक सम्प्रयास किया गया है।
अध्ययन एवं स्वरूपगत अवधारणा की दृष्टि से सम्पूर्ण ग्रन्थ को कुल दस अध्यायों में विभक्त किया गया है जिससे भारतीय साहित्य एवं शिल्प में निरूपित विश्वकर्मा देवता के विविध पक्षों पर तथ्यपरक विवेचन प्रस्तुत किया जा सके।
विषयगत अन्तर्दृष्टि नामक प्रथम अध्याय में विषय को भारतीय चिन्तन के व्यापक परिप्रेक्ष्य में वैचारिक पृष्ठभूमि, विषय का महत्त्व, अनुसंधान की आवश्यकता तथा उद्देश्य एवं अद्यावधि हुए शोध कार्यों को उद्धृत करते हुए मीमांसात्मक विश्लेषण एवं विवरण प्रस्तुत करने की सुविचारित योजना सामने रखकर विषय का प्रवर्तन किया गया है।
अध्ययन की स्रोत-सामग्री : संदर्भगत समीक्षा नामक द्वितीय अध्याय में साहित्यिक एवं पुरातात्त्विक स्रोतों का विवरणात्मक विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है। इनमें उपलब्ध संदर्भो के आधार पर वैदिक, महाकाव्य, पौराणिक, प्राकृत, पालि, संस्कृत तथा वास्तु एवं शिल्प शास्त्रीय साहित्यिक स्रोतसामग्रियों का उद्धरण दिया गया है। पुरातात्त्विक स्रोतों में मंदिर, मूर्ति, चित्र तथा पुराभिलेख ही सम्बन्धित विषय की परिधि में सम्मिलित होने के कारण समीक्षित हैं। प्रागैतिहासिक, पुरैतिहासिक तथा क्षेत्रीय पुरातत्त्व से इस विषय का सम्बन्ध न होने के कारण उनका स्पर्श समीचीन नहीं है।
स्रोत-सामग्रियों के विवेचन में विश्वकर्मा के प्रत्यक्ष उल्लेखों वाले ग्रन्थों की ही समीक्षा की गई है। पुराणों के संदर्भगत सामग्रियों के उल्लेख में ऐतिहासिक कालक्रम को अधिक महत्त्वांकित न कर विवरणों की महत्ता को रेखांकित करने का प्रयास किया गया है क्योंकि देवता विषयक विवरण तथा उनके स्वरूप को कालक्रम में नहीं बांधा जा सकता है।
तृतीय अध्याय में विश्वकर्मा के मिथक रूप : वैदिक तथा परवर्ती साहित्य में का विशद् विवेचन किया गया है। इसमें विश्वकर्मा की शाब्दिक व्युत्पत्ति, अर्थ और अवधारणा; मिथक का अभिप्राय, भारतीय पुराकथापरम्परा, भारोपीय काल के देवता एवं विश्वकर्मा, विश्वकर्मा की वैदिक उत्पत्ति, विश्वकर्मा का ऋषित्व, विश्वकर्मा और त्वष्टा, विश्वकर्मा और प्रजापति, ऋग्वेद, उत्तर वैदिक साहित्य, महाकाव्य, पुराण, संस्कृत साहित्य तथा बौद्ध साहित्य में विश्वकर्मा के मिथक रूपों का तार्किक विवेचन तथा विश्लेषण प्रस्तुत करने का विनम्र प्रयास किया गया है। जैन साहित्य में विश्वकर्मा का कोई देवस्वरूप नहीं प्राप्त होता है, इसीलिये मात्र संदर्भो का उल्लेख समीचीन समझा गया है। दक्षिण भारत की मय संस्कृति में विश्वकर्मा को स्थान प्राप्त नहीं है, इसलिए दक्षिण भारत की साहित्यिक कृतियों में इसके उद्धरण भी अप्राप्त हैं। क्योंकि विश्वकर्मा देव शिल्पी है तथा मय दानवाशिल्पी।
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