भाषाविज्ञों ने पदों का वर्गीकरण चार प्रकार से किया है नाम, आख्यात, उपसर्ग और निपात। आचार्य शाकटायन सभी नामपदों को आख्यातज मानते हैं और नैरुक्तों का भी यही सिद्धान्त रहा हैं। आख्यात धातु का वाचक है। दधाति विविधं शब्दरूपं यः स धातुः अर्थात् जो शब्दों के विविध रूपों को धारण करने वाला, निष्पादन करने वाला, शब्द के अन्त:प्रविष्ट रूप है, वह धातु है। जो शब्द आवश्यकतानुसार नाम विभक्तियों से युक्त होकर नाम बन जाये, आख्यात विभक्तियों से युक्त होकर क्रिया का द्योतन करने लगे और उभयविध विभक्तियों से रहित रहकर स्वार्थ मात्र द्योतक हो वह तीनों रूपों में परिणत होने वाला मूलशब्द ‘धातु’ वाच्य होता है। इस प्रकार के आवश्यकतानुसार विविध रूपों में परिणत होने वाले शब्द ही आदि भाषा संस्कृत के मूल शब्द थे।
वेद और लोक में इन आख्यातों के प्रमुख होने पर भी आचार्य बास्क ने अनेक पदसमूहों का तो व्याख्यान अवश्य किया, किन्तु आख्यात के विषय में उनकी शैली संक्षिप्त सी रही हैं।
प्रस्तुत कोष में निरुक्त की इसी रिक्तता की पूर्ति के साथ ही निघण्टु के आख्यातों का अर्थदर्शन कराके निरुक्त का पूरक बनने का प्रयास किया गया है।
वेद में प्रयुक्त धातु का क्या वर्तमान में उपलब्ध धातुपाठों से भी भिन कोई रूप है इसका प्रत्यक्ष भी इस धातुपाठ में मात्र आत्मनेपदी अथवा परस्मैपदी ही पठित कोष से होगा। कुछ धातुएँ ऐसी भी आयी हैं जो उपलब्ध हैं, किन्तु वेद में वह उभयपदी भी प्रयुक्त होती हैं। वेद में प्रयुक्त धातु के कुल कितने रूप प्रयुक्त हुए हैं यह भी इस कोष से ज्ञात हो रहा है।
सात खण्डों में विभक्त इस वृहद्वैदिकसंहिताधातुकोष पाठकों को एक स्थान पर देखने को मिलेंगे। यह विशाल के माध्यम से वेद में प्रयुक्त धातु के सभी रूपों के दर्शन कोष निघण्टु निरुक्त और व्याकरणशास्त्र का पूरक बनकर वेदार्थ में शोधच्छात्रों और विद्वानों के लिये अनुसन्धान में सहायक होगा।
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