प्राचीन भारतीय इतिहास में पुरातत्व एवं साहित्य का सहसम्बन्ध स्थापित करने का प्रयास बहुत अल्प मिलता है। अपवाद स्वरूप कुछ विद्वानों ने पुरातत्व के साथ साहित्यिक परम्परा का समन्वय स्थापित करने का प्रयास अवश्य किया है।
प्रस्तुत ग्रन्थ इस परम्परा के पोषण की श्रृंखला में एक कड़ी के रूप में है जिसमें मृद्भाण्डों की पुरातात्विक एवं साहित्यिक परम्परा की मीमांसा प्रस्तुत की गयी है। इस ग्रन्थ में वैदिक काल से लेकर बौद्ध काल तक के साहित्य में उल्लिखित विविध प्रकार के पात्रों का समन्वय पुरातत्वीय उत्खनन में प्राप्त मृदभाण्डों से स्थापित करने का प्रयास किया गया है।
पाँच अध्यायों में विभक्त इस ग्रंथ के प्रथम अध्याय में मृद्भाण्डों के निर्माण की कला के उद्भव, विकास एवं महत्व को प्रतिपादित किया गया है। द्वितीय अध्याय में वैदिक साहित्य एवं बौद्ध साहित्य में वर्णित मृद्भाण्डों की समीक्षा की गई है। तृतीय अध्याय में मृद्भाण्डों की पुरातत्वीय परम्परा का उल्लेख है। चतुर्थ अध्याय में मृद्भाण्डों की साहित्यिक एवं पुरातत्वीय परम्परा का तुलनात्मक विवरण प्रस्तुत किया गया है तथा ग्रन्थ के पंचम अध्याय में मृद्भाण्डों के सांस्कृतिक परिवेश की मीमांसा की गई है।
संक्षेपतः प्रस्तुत ग्रन्थ साहित्य एवं पुरातत्व के शोधकर्ताओं, विद्वानों तथा पुस्तकालयों के लिये अत्यन्त उपादेय है।
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