पुराभिलेखों में इतिहास-परम्परा एवं संस्कृति

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Historical Tradition and Culture in Ancient Indian Inscriptions

Author-Editor/लेखक-संपादक
Vipula Dubey & Rajvant Rao
Language/भाषा
Hindi
Edition/संस्करण
2015
Publisher/प्रकाशक
Pratibha Prakashan
Pages/पृष्ठ
284
Binding Style/बंधन शैली
Hard Cover
ISBN
9788177023602

पुस्तक परिचय

भारत में ऐतिहासिक परम्परा का उद्भव वैदिक काल में प्रचलित कई साहित्यिक विधाओं से हुआ, इनमें गाथा, नाराशंसी, आख्यान एवं इतिहास-पुराण प्रमुख थे। भारत में अभिलेखों के उत्कीर्णन की अविरल परम्परा मौर्य सम्राट अशोक के शासन काल से आरम्भ हुई, यद्यपि कतिपय ऐसे अभिलेख भी प्राप्त हैं, जो अपनी लिपिगत विशेषता के आधार पर प्राङ्मौर्य युगीन माने जाते हैं। ये अभिलेख कुछ सीमा तक साहित्य परम्परा में उल्लिखित ‘शासन पत्र के मानक के अनुकूल हैं। भारतीय इतिहास-परम्परा न केवल अभिलेखों के अनुचरित वर्णन में अनुस्यूत हुई बल्कि वैदिक कवि, पुरोहित, सूत, मागधों का स्थान वेतनभोगी अमात्यों, सचिवों, मन्त्रियों, सान्धिविग्रहिकों ने ले लिया तथा ये अपने आश्रयदाता राजाओं के इतिवृत्त का विवरण काव्यात्मक शैली में निबद्ध करने लगे। प्रशस्तियों के रचयिता साहित्यशास्त्र के मर्मज्ञ विद्वान थे। प्रयागप्रशस्ति के लेखक हरिषेण की यह प्रशस्ति उसके काव्य-ज्ञान का प्रबल प्रमाण है।
अस्तु उन परिवर्तित राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक परिस्थितियों की चर्चा आवश्यक है, जिसने देशकाल के परिवर्तन के साथ प्रशस्ति लेखन को प्रभावित किया। दूसरी ओर भारत में राजकीय प्रज्ञापनों के प्रणयन एवं काव्य लेखन में विशेष अन्तर नहीं माना गया, यह भी विमर्श का विषय है।
प्रस्तुत ग्रंथ, आरम्भ से लेकर बारहवीं शती ई० तक के अभिलेखों के सम्बन्ध में गहन-विचार मंथन हेतु आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी में प्रस्तावित विषय के हर पक्ष पर हुए सार्थक व्याख्यान का प्रकाशित रूप है।

INDEX:

लेखक परिचय 

प्रो० विपुला दुबे देवरिया जनपद (उ०प्र०) के अण्डिला ग्राम में सन् 1956 में जन्म, पिता श्री सत्यदेव उपाध्याय एवं माता श्रीमती यशोदा देवी। प्रथम श्रेणी में स्नातक एवं स्नातकोत्तर की उपाधि गोरखपुर विश्वविद्यालय, गोरखपुर से क्रमशः सन् 1975, 1977 में प्राप्त की। यहीं से पी-एच०डी० की उपाधि भी प्राप्त की। सन् 1980 से प्राचीन इतिहास, पुरातत्त्व एवं संस्कृति विभाग, दीनदयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय, गोरखपुर में अध्यापनरत। विषय-विशेषज्ञता : इतिहास की विविध विधाओं में अभिलेखशास्त्र, लिपिशास्त्र, मुद्राशास्त्र तथा इतिहासलेखन विशेष अध्ययन एवं रुचि का क्षेत्र है। प्रकाशित ग्रंथ एवं पत्रिकाएँ : गुप्त अभिलेखों का साहित्यिक अध्ययन, विभागीय पत्रिका ‘पूर्वा’ का सम्पादन, विश्वविद्यालय की सांस्कृतिक स्मारिका ‘सबद’ का सम्पादन। विभिन्न शोध पत्रिकाओं, कार्यवृत्तों, स्मृति ग्रंथों, अभिनन्दन ग्रन्थों में 55 शोध पत्र प्रकाशित हैं।

अनेक राष्ट्रिय संगोष्ठियों भारतीय कला. लोक परम्परा एवं संस्कृति, प्राचीन भारतीय अभिलेखों में इतिहास परम्परा एवं संस्कृति, नारी: अतीत से वर्तमान तक, भारतीय संस्कृति में सह- अस्तित्व की अवधारणा एवं उसकी वैश्विक प्रासंगिकता का संयोजन।।

विभिन्न राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय संगोष्ठियों में सहभागिता तथा शोध-पत्रों का वाचन।अनेक पुनश्चर्या तथा अभिविन्यास पाठ्यक्रमों में व्याख्यान ।

प्रो० राजवंत राव अचिरावती की शाखा गोर्रा नदी पर बसे गाँव नरायनपुर में 5 जून, 1965 को जन्म। प्राचीन भारत में धर्म एवं राजनीति’ शोध-प्रबन्ध के प्रकाशन के अतिरिक्त ‘प्राचीन भारतीय मुद्रायें’, ‘प्राचीन भारतीय मुद्रायें, लिपि एवं कला’, ‘गुप्तोत्तर युगीन भारत का राजनीतिक इतिहास’, पुस्तकें प्रकाशित एवं भारतीय उपमहाद्वीप में कृषि एवं कृषक समुदाय’ सम्पादित पुस्तक है। विभिन्न अकादमिक समितियों के सदस्य, शोध-पत्रिकाओं में दर्जनों शोध-पत्रों का प्रकाशन।

जीवन एवं विचार एक दूसरे के पूरक होते हैं, जीवन के छूटे बिना विचार अवरुद्ध नहीं हो सकता। समाज, संस्कृति एवं मनुष्यता के अनन्त प्रवाह पर विचार लेखक के लिए काम्य है।

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