त्रिपुरी डाहल देश की राजधानी थी, यहाँ प्रारम्भ से ही इस क्षेत्र में पल्लवित विभिन्न राजवंशों ने कला को प्रोत्साहित किया। परिणामतः यहाँ पर मूर्तिकला की विशिष्ट क्षेत्रीय शैली का प्राभुर्भाव हुआ। इसका गहन अध्ययन अपेक्षित था और इसकी पूर्ति प्रस्तुत ग्रन्थ में की गई है।
ग्रन्थ में लेखक ने त्रिपुरी की धार्मिक और लौकिक, दोनों प्रकार की प्रतिमाओं के साथ ही उनके अलंकरण-विधान, वस्त्राभरण एवं आयुध का केवल वर्णन और विश्लेषण ही नहीं किया, अपितु प्रतिमा-विज्ञान के उपलब्ध साहित्य का मंथन कर विषय का सर्वांगीण और विवेचनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया है।
इसमें संदेह नहीं कि त्रिपुरी की मूर्ति-सम्पदा पर यह पहला प्रामाणिक ग्रन्थ है। मूर्तिकला का विषय गहन होने पर भी इसकी शैली रोचक है और पुस्तक सुपाठ्य है। पुस्तक की उपादेयता सुन्दर चित्रों के कारण और भी बढ़ गई है। मुझे विश्वास है कि इस पुस्तक से भारतीय कला एवं इतिहास के विशेषज्ञ, जिज्ञासु छात्र-वृन्द और जन-साधारण सभी लाभान्वित होंगे।
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