“वेद ईश्वरीय संविधान है। जैसे ईश्वर अनादि है, वैसे ही वेद भी। अनादि कहने से उनका अपौरुषेयत्व भी सिद्ध होता है क्योंकि जो वस्तु सादि अर्थात् उत्पत्ति वाली होती है, वह पौरुषेय (पुरुष की रचना) होती है। मन्त्र-ब्राह्मणात्मक वेद सादि नहीं हैं अतः अपौरुषेय हैं। वेदों का रचयिता जन्म, मृत्यु, जरा, व्याधि के चक्र में पड़ा हुआ जीव नहीं हो सकता। सर्वज्ञ ऋषि भी उसके रचनाकार नहीं हो सकते क्योंकि वे किसी कालविशेष में सर्वज्ञ होते हैं। वेद तो उनके सर्वज्ञ होने के पहले से ही विद्यमान रहते हैं। भगवान् स्वयं उसके कर्ता नहीं होते। यदि उन्हें उनका कर्ता मान लिया जाए, तो उसके पहले उनका संविधान क्या था? मानवीय नियमों में ही परिवर्तन होता है। ईश्वरीय सविधान वेदों में नहीं। वे सदा एकरूप ही रहते हैं। ऋक्, यजुष्, साम और अथर्व भेद से वेद चतुर्धा विभक्त हैं।
सामवेद
ऋषियों के निवास स्थान, जनकोलाहल से रहित, प्रशान्त, एकान्त अरण्य में सामवेदगान होने पर साधकों का चित्त द्रवित होकर प्रेममयी भक्ति रस का अपरिमित पारावार तरंगायित होता रहता था, जिससे त्रिताप का क्षालन होने से मुमुक्षु ब्रह्मविद्या का उत्तम अधिकारी होता था। सामगायकों और श्रोताओं को अतीन्द्रिय पदार्थों के साक्षात्कार का विलक्षण सामर्थ्य भी प्राप्त होता था, जिससे ऋषिगण अतीत, अनागत, दूरस्थ, व्यवहित और सूक्ष्मतम वस्तु का प्रत्यक्ष करके सर्वज्ञ होते थे। उनके हृदय में अनधीत मन्त्रों का प्रकाश होने से वे मन्त्रद्रष्टा भी होते थे। कर्म के अंगरूप से किए सामगान से कर्म विना प्रतिबन्ध के फल प्रदान करने में समर्थ होता था। सामगान के अद्भुत प्रभाव से आकृष्ट होकर अरण्यवासी सिंह, व्याघ्र आदि पशु भी हिंसा का भाव छोड़ देते थे, इसी कारण ऋषियों के आश्रम में खग, मृग और सिंह, व्याघ्र आदि का एक साथ रहना संभव होता था। भगवान् श्रीकृष्ण वेदानां सामवेदोस्मि । (गी. 10.22) इस प्रकार सामवेद को अपनी विभूतिविशेष कहकर उसकी श्रेष्ठता को अभिव्यक्त करते हैं। शतपथ ब्राह्मण ‘सामवेद के विना यज्ञ सम्पन्न नहीं होता’-नासाम यज्ञोस्तीति । (श.ब्रा.), ऐसा कहते हुए सामवेद के महत्त्व को ख्यापित करता है। छान्दोग्य श्रुति के अनुसार ही सामवेद का सार उद्गीथ है-साम्न उद्गीथो रसः। (छां.उ.1.1.2 ) । यहाँ उद्गीथ का अर्थ ओंकार है। वैदिकों का कोई भी कर्म जिसके विना सम्पन्न नहीं होता, मुमुक्षुओं का भी सर्वस्व उस ओंकार का आकर होने से भी सामवेद अत्यन्त महिमाशाली है।
सामवेद में गायनप्रधान उत्कृष्ट ऋचाओं का संकलन है। ऋच्यधिरूढं साम गीयते। (छां.उ.1.6.1-5, 1.7.1-4) इत्यादि श्रुतियों के अनुसार ऋक् मन्त्र विशिष्ट पद्धति से गाये जाने पर साम कहलाते हैं। इससे स्पष्ट है कि ऋक् मन्त्रों से ही सामगान होता है। यजुष् मन्त्रों का गान होता ही नहीं और सभी ऋचाओं का भी गान नहीं होता। जब ऋचा का पाठ किया जाता है, तब वह ऋक् है किन्तु जब गान किया जाता है, तब वही साम है। इसीलिए छान्दोग्य श्रुति कहती है कि जो ऋक् है, वही साम है-यर्क तत्साम (छां.उ.1.3.4)। गायी हुई ऋा साम कहलाती है-ऋक्+ गान-साम। ऋक् का गान किया जाता है, वह गान क्रिया का आश्रय है, गानरूप नहीं।
साम का अर्थ है गान, किन्तु ऋग्वेदीय मन्त्र जब विशिष्ट रीति से गाये जाते हैं, तभी उन्हें साम कहते हैं, इसीलिए प्रस्तुत छान्दोग्योपनिषत् में अनेकों बार कहा जाता है कि ऋच्यधिरूढं साम गीयते। महर्षि जैमिनि ने कहा है कि गाये हुए मन्त्रों के लिए साम शब्द का प्रयोग होता है-गीतिषु सामाख्या(जै.सू.2.1.36). इसका भाष्य करते हुए शबर स्वामी कहते हैं कि अभियुक्त जन गाये हुए मन्त्रात्मक वाक्य के लिए साम शब्द का प्रयोग करते हैं-प्रगीते हि मन्त्रवाक्ये सामशब्दमभियुक्ता उपदिशन्ति। (शा.भा.2. 1.36)1 शाखा महर्षि पतञ्जलि सामवेद की एक सहस्र शाखाएँ कहते हैं-सहस्रवर्त्मा सामवेदः। (महा.भा.प.)। सम्प्रति सामवेद की तीन शाखाएँ उपलब्ध होती. हैं-कौथुमी, राणायनीया और जैमिनीया। इन सभी को सामान्यतः छान्दोग्य शाखा कहा जाता है।
वेद की प्रत्येक शाखा में संहिता और ब्राह्मण होते हैं। छान्दोग्योपनिषत् सामवेद के ब्राह्मण भाग की है।
ब्राह्मण
सामवेद के नौ ब्राह्मण सुने जाते हैं-1. ताण्ड्य महाब्राह्मण, 2. षड्विंश ब्राह्मण, 3. सामविधान ब्राह्मण, 4. आर्षेय ब्राह्मण, 5. दैवत ब्राह्मण, 6. उपनिषद् ब्राह्मण, 7. सहितोपनिषद् ब्राह्मण, 8. वंश ब्राह्मण, 9. जैमिनीय ब्राह्मण। इन सभी को छान्दोग्य ब्राह्मण कहा जाता है। ताण्डि शाखा के अन्त में विद्यमान ब्राह्मण को ताण्डि ब्राह्मण, ताण्ड्य ब्राह्मण या ताण्ड्य महाब्राह्मण कहते हैं। छान्दोग्योपनिषत्
ईशकेनकठप्रश्नमुण्डमाण्डूक्यतित्तिरिः । ऐतरेयं च छान्दोग्यं बृहदारण्यकं तथा।।(मुक्ति.उ.1.30) इस प्रकार उपनिषद्मणिमाला में नवम स्थान में ग्रथित होकर प्रस्तुत छान्दोग्योपनिषत् अपने त्रितापहारी, मनोहर, स्निग्ध, शीतल प्रकाश से मुमक्षुओं की संतापकारक संसारज्वाला को दग्ध कर उनके हृदय को आनन्दातिरेक से आलोकित कर रही है। यह सामवेद की ताण्डिशाखा की उपनिषत् है। ताण्डिब्राह्मण सामवेद का भागविशेष है-छान्दोग्यं ताण्डिशाखोपनिषत् । ताण्डिब्राह्मणमिति कश्चिद् भागः। (वि. को. भाग 5, पृष्ठ 121 ) । श्रीउत्तमूर वीरराघवाचार्य छान्दोग्योपनिषद्भाष्य की भूमिका में लिखते हैं कि छान्दोग्योपनिषत् सामवेद की ताण्डी शाखा के अन्त में विद्यमान है-ताण्डिनां शाखायाम् अन्ते या उपनिषत्, सा छान्दोग्यशब्देन व्यवह्रियते। (छान्दोग्योपनिषद्भाष्यभूमिका पृष्ठ 19)।
केनोपनिषद् और छान्दोग्योपनिषत् दोनों सामवेद की उपनिषदें हैं। उनका आप्यायन्तु ममाङ्गानि ही शान्तिपाठ है तथापि केनोपनिषत् तलवकार ब्राह्मण की है और छान्दोग्य ताण्डिब्राह्मण की है। एक ही वेद की उपनिषत् होने के कारण दोनों का शान्तिपाठ समान है।
ऋचाएँ (ऋक् मन्त्र) गायत्री आदि अनेक प्रकार के छन्दों में उपनिबद्ध हैं, इसलिए छन्दोबद्ध मन्त्रों में सामगान करने वालों को छन्दोग कहा जाता है और उनसे सम्बन्ध रखने वाली सामवेद की उपनिषत् को छान्दोग्योपनिषत् कहते हैं-छन्दोगा:’ छन्दोबद्धमन्त्रेषु सामगानकर्तारः। छन्दोगानाम् इयं
1. गापोष्टक् (अ.सू.3.2.8) इस सूत्र से छन्दांसि उपपद रहते टक् प्रत्यय तथा आतो छान्दोग्यम्। छान्दोग्यं च सा उपनिषत् इति छान्दोग्योपनिषत्।
छन्दोग शब्द से छन्दोगौक्थिकयाज्ञिकबवृचनटाञ्ञ्यः (अ.सू.4.3.129) इस सूत्र से आम्नाय अर्थात् वेद अर्थ में ज्य प्रत्यय करने पर छान्दोग्य शब्द सिद्ध होता है। सामगायकों का वेद छान्दोग्य कहलाता है-छन्दोगानाम् आम्नायः छान्दोग्यम्। इस प्रकार सामवेद को ही छान्दोग्य कहा जाता है और सामवेदीया उपनिषत् को छान्दोग्योपनिषत्-छान्दोग्यञ्च सा उपनिषत् च इति छान्दोग्योपनिषत् ।
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