केनोपनिषत्: Kenopanishat

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प्रस्तावना

इस संसार में सभी प्राणी दुःखों की निवृत्तिपूर्वक सुख की प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील रहते हैं किन्तु अधिकतर लोग इन्द्रियजन्य वैषयिक सुख की प्राप्ति के साधन में प्रवृत्त होते हैं। उनमें अविवेकी, पामर मनुष्य निषिद्ध साधनों से भी अभीष्ट सुख प्राप्त करना चाहता है किन्तु श्रुति, स्मृति तथा तदनुकुल सदाचार को प्रमाण माननेवाला मानव वैसा नहीं करता, वह सांसारिक सुख की आकाङ्क्षा होनेपर विहित साधनोंसे सुखार्जन की इच्छा करता है। इसलिए विभिन्न काम्यफलों को उद्देश्य करके उनकी प्राप्तिके साधनरूप से याग, होमादि सत्कर्म शास्त्रों में वर्णित हैं। पुण्य के क्षीण होनेपर स्वर्गलोक से मृत्युलोक में आ जाते हैं- क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति (गी. (9.21) इत्यादि शास्त्रवाक्यों से ज्ञात होता है कि कर्म से प्राप्त होने वाले स्वर्गादि फल अस्थायी हैं, इसलिए विवेकी मनुष्य काम्य कर्म का आचरण नहीं करता, वह उन से विरत होकर, लौकिक सुख को नश्वर मामकर पारलौकिक मोक्षरूप सुख का अन्वेषण करता है। इस के लिए वह ब्रह्मविचार में प्रवृत्त होता है। ब्रह्म का चिन्तन सभी के लिए सुगम नहीं है। कुछ लोग कुमारावस्था में ही इसे सम्पन्न करते हैं, कुछ युवावस्था में और कुछ वृद्धावस्था में किन्तु कुछ जीवन की समग्र अवधि में भी इसे नहीं कर पाते हैं। ब्रह्मानुसन्धान के लिए मुमुक्षु के द्वारा अध्येतव्य शास्त्र उपनिषत्, ब्रह्मसूत्र और गीता प्रस्थानत्रय कहे जाते हैं। इनमें उपनिषदों की ही प्रधानता है क्योंकि ब्रह्मसूत्र और गीता का मूल उपनिषत् ही है। तत्त्वानुसन्धानमें प्रवृत्त हुए साधक के परम हितैषी उपनिषत् हैं। तत्त्वगवेषणा के लिए मन्त्रद्रष्टा महर्षियों ने। सभी प्रकार के ऐहिक सुखों का परित्याग कर के एकान्त नदीतट, पर्वत की गुहा आदि प्रशान्त निर्जन स्थानों का आश्रय लिया। वे सर्वथा अहंकारशून्य तथा प्रसिद्धि, प्रतिष्ठा और लाभ से पराङ्मुख थे। संसार पंक में निमग्न प्राणियों के उद्धार की कामना वाले परम कारुणिक उन ऋषियों ने परमात्मतत्त्व का उपदेश किया। उन के द्वारा साक्षात्कृत सनातन ब्रह्मतत्त्व को न जानने के कारण मनुष्य बहिर्मुख होकर नाना प्रकार की दुःख यातनाओं को निरन्तर भोगता रहता है। अनादि दुःख प्रवाह की निवृत्ति हेतु पूर्वकाल में जिज्ञासु ब्रह्मविद्या की प्राप्ति के लिए आचार्य की शरण में जाते थे और गुरुकुल से गुरु की शुश्रूषा करते थे। आचार्य पुत्र से भी अधिक वात्सल्य कर के शिष्य को ब्रह्मविद्या प्रदान करते थे। इस की प्राप्ति के लिए जब शिष्य सूक्ष्मतत्त्व के विषयमें प्रश्न करता है, तब आचार्य उस के मन की भूमिका के अनुसार ही उत्तर देते हैं। तत्त्वके प्रतिपादन करने का यह उत्तममार्ग है। तत्त्वजिज्ञासु तत्त्ववेत्ता गुरु को प्राप्त कर के उन से साक्षात् ज्ञानामृत प्राप्त करता है। प्रश्नोत्तर की पद्धति में आचार्य और शिष्य का निकटतम सम्बन्ध होता है। गुरु शिष्य का यह सम्बन्ध ब्रह्मविद्या प्राप्त करने की पद्धतिमें अत्यन्त प्रशस्त है। मुमुक्षु शिष्य के अभिप्राय को जानकर उस के प्रश्न का उत्तर देने के लिए आचार्य के पास पर्याप्त समय रहता है। विशाल जनसमूह में तात्त्विक विषय के श्रवण की अपेक्षा शान्त, एकान्त स्थलमें उनका श्रवण अत्यन्त लाभदायक है इसलिए निर्जनस्थान में आचार्य के समीप बैठकर शान्त चित्त से तत्त्व का श्रवण करना चाहिए। गुरु न केवल तत्त्वोपदेश करता है अपितु तत्त्वसाक्षात्कार के लिए कुशलता भी प्रदान करता है। इसलिए आज भी ब्रह्मविद्या की परम्परा विद्यमान है।

‘केन’ पद से आरम्भ होने के कारण इसका नाम केनोपनिषत् है। यह सामवेद के जैमिनीय ब्राह्मण की है, इसलिए इसे जैमिनीयोपनिषत् कहा जाता है। जैमिनीय ब्राह्मणका एक नाम तलवकार ब्राह्मण है, इस लिए इसे तवलकारोपनिषत् भी कहा जाता है। जिस विषय की जिज्ञासा होती है, उसी विषय का उत्तर प्राप्त होने पर प्रश्नकर्ता अच्छी तरह समझता है और सन्तुष्ट होता है इसीलिए कहा है कि विना पूँछे किसी को उपदेश न करें नापृष्टः कस्यचिद् ब्रूयात् (म.स्मृ.2. 110), म.भा. शां. 287.35 तथा भ.पु.1.4.37)। प्रस्तुत केनोपनिषद् में जिज्ञासु शिष्य के प्रश्न करनेपर ही उनका उत्तर दिया गया है। इस की भाषा-शैली अत्यन्त सरल, सुबोध और हृदयग्राही है। इसमें सम्पूर्ण उपनिषदों का सार संग्रहीत है। यह चार खण्डों में विभक्त है।

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