पुस्तक परिचय
स्वामी दयानन्द की यह ध्रुव धारणा थी कि वेद ईश्वर का शाश्वत ज्ञान है जो सृष्टि के आदि काल में मानव जाति के हितार्थ अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा नामक ऋषियों के माध्यम से मनुष्यों को दिया गया। वेदों के शाश्वत ज्ञान होने की पुष्टि में उन्होंने शास्त्रीय वाङ्मय से भूरिशः प्रमाण उद्धृत किए।
स्वामी दयानन्द का वेदभाष्य इस दृष्टि से भी महत्त्व पूर्ण है कि उन्होंने वेद मंत्रों में किसी लौकिक इतिहास की सत्ता स्वीकार नहीं की। फलतः वे वेदों में किसी व्यक्ति, जाति, वर्ग, देश, भौगोलिक स्थान आदि का उल्लेख नहीं मानते। यदि वेद अनादि ईश्वरीय ज्ञान है तो उसमें व्यक्तियों, जातियों, नगरों, नदियों, पर्वतों तथा मनुष्य-समूहों का उल्लेख मानना असंगत होगा। तथापि हम मंत्रों में ऐसे नाम देखते हैं जो कालांतर में व्यक्ति, वर्ग, नदी, पर्वत तथा पुरूष अथवा नारी विशेष के लिय प्रयुक्त होने लगे थे।
स्वामी दयानन्द के वेदभाष्य की एक अन्य विशेषता यह है कि उसमें वेदों में वैज्ञानिक सत्यों की विद्यमानता स्वीकार की गई है। निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि स्वामी दयानन्द का वेदभाष्य वेद के अध्ययन में एक नई दिशा का संकेत करता है।
महर्षि दयानन्द ने जहां हमारे समक्ष सत् शास्त्रों की अनुपम व्याख्या दी, वहीं जीवन को सन्मार्ग पर चलाने के लिए कतिपय सूत्र प्रदान किये।
लेखक परिचय
ऋषि दयानन्द सरस्वती वर्तमान युग के महान् वेदाचार्य थे। आपने अपने धर्मान्दोलन को न केवल वेदों के आधार पर संचालित किया अपितु यह स्पष्ट रूप से घोषित किया कि मानवीय धर्म, अध्यात्म और नैतिक चिंतन का मूल स्रोत वेद ही हैं। वेदों को आपने समस्त सत्य विद्याओं की पुस्तक घोषित किया तथा प्रत्येक वैदिक धर्मी आर्य के लिए उनका पढ़ना-पढ़ाना तथा सुनना-सुनाना आवश्यक बताया।
वस्तुतः स्वामी दयानन्द ने वेदों का आधार लेकर ही भारत में नवजागरण की लहर उत्पन्न की थी तथा इस देश में धार्मिक, सामाजिक तथा राष्ट्रीय क्रान्ति का प्रवर्तन किया था।
वेदों के विषय में व्याप्त, अज्ञान को उन्मूलित करने के लिए दयानन्द सरस्वती ने यह आवश्यक समझा कि वेदों के सर्वमान्य ज्ञान को मानव समुदाय के समक्ष पुनः उपस्थित करने के लिए पुरातन ऋषियों द्वारा अपनाई गई परिपाटी के अनुसार भाष्य लिखा जाए जिस से इन ग्रंथों का प्रोज्ज्वल एवं लोक-हितकारी रूप पुनः सामने आए।
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