अष्टाध्यायी सहजबोध : कारकप्रकरण तथा समासप्रक्रिया
हमें यह अवश्य ज्ञान होना चाहिये कि ३९७८ सूत्रों में निबद्ध, जो नारिकेल के समान कठोर दिखने वाली भगवान् पाणिनि की अष्टाध्यायी है, यह आदि से अन्त तक एक सूत्र में जुड़ी हुई पूरी अखण्ड नहीं है। इसके भीतर अनेक खण्ड हैं इन खण्डों को अलग अलग तोड़ा जा सकता है। तोड़े बिना यह उपयोगी भी नहीं हो सकती जैसे तोड़े बिना नारिकेल हमारे किसी उपयोग का नहीं होता। अत: हमने इस अष्टाध्यायी को तोड़कर इसके छह विभाग कर दिये हैं। इनमें पाँच तो प्रक्रियायें हैं। धात्वधिकारीयप्रक्रिया, सुबन्तप्रक्रिया, तद्धितप्रक्रिया, समासप्रक्रिया और स्वरप्रक्रिया इन पाँचों प्रक्रियाओं के सूत्र हमने अलग अलग कर दिये हैं क्योंकि इनमें परस्पर बाध्यबाधकभाव नहीं है। अब जो सूत्र बचे, वे हैं संज्ञा, परिभाषा और सन्धि के सूत्र। ये सामान्य सूत्र हैं। सामान्य इसलिये कि इनकी आवश्यकता सारी प्रक्रियाओं के लिये है।
इसमें कोई संशय नहीं है कि ये जो वेदादिशास्त्र हैं, ये हमारे राष्ट्र की धरोहर हैं और ये ही हमारे भारतीय होने की पहिचान हैं। किन्तु इनमें प्रवेश करने के लिये संस्कृत व्याकरण का ज्ञान होना अनिवार्य है और संस्कृत के व्याकरण को पढ़ने की जो वर्तमान विधि है, बह सिद्धान्तकौमुदी है, जो अत्यन्त जटिल है और अष्टाध्यायी कि प्रक्रियाग्रन्थ नहीं हैं, अत: अष्टाध्यायी को अष्टाध्यायीक्रम से पढ़ना भी घोर अवैज्ञानिक पद्धति है। अत: मैंने ४० वर्ष के अनारत अभ्यास से अष्टाध्यायी के संरचनाविज्ञान और अष्टाध्यायी के प्रक्रियाविज्ञान का साक्षात्कार करके शब्दसिद्धि के जिस मार्ग को प्रकट किया है, इसका नाम है’ पाणिनीया पौष्पी प्रक्रिया’। इसे मैंने राष्ट्रभाषा में ‘अष्टाध्यायी सहज बोध’ नाम से छह भागों में तथा ‘नव्यसिद्धान्तकौमुदी’ नाम से देवभाषा में आठ भागों में लिखा है। इस क्रम से अष्टाध्यायी की सारी प्रक्रियायें छह से दस मास में सिद्ध हो हो जाती हैं।
प्रस्तुत ग्रन्थ का प्रतिपाद्य विषय समासप्रक्रिया और कारक है। कारक में हमने तिङ् कृत् प्रत्ययों के अर्थ बतलाते हुए पहिले अभिहित-अनभिहित का विज्ञान कराया है, बाद में कारकों की व्याख्या प्रथमा द्वितीया आदि विभक्तियों के क्रम से न करके कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान, अधिकरण, इन कारकों के क्रम से की है। प्रातिपदिकार्थ को इन सबके पहिले दे दिया है और षष्ठी चूँकि शेष में होती है, अत: पष्ठी को सबसे अन्त में दिया है। कर्मप्रवचनोयों के द्वितीया, पञ्चमी, सप्तमी, ये तीन विभाग न करके सारे कर्मप्रवक्तनीयों की व्याख्या अन्त में आष्टाध्यायीक्रम से कर दी है।
समासप्रक्रिया के जो पाँच उपाङ्ग हैं-समासान्ताप्रत्यय। सुप् का लुक् अथवा अलुक्। पूर्वनिपात-परनिपात का निर्णय । समास के लिङ्ग-वचन का निर्णय । उत्तरपद परे होने पूर्वपद को होने वाले कार्य, इनका विज्ञान समास के आदि में कराते हुए हमने, समासान्त के सारे सूत्रों के और उत्तरपदाधिकार के सारे सूत्रों के चार, चार विभाग करके, उन्हें तत्तत् समास में समाहित करके पूरे समास को चार विभागों में विभक्त करके इसे सुस्पष्ट कर दिया है। और कौमुदी में जो के समासान्त, समासाश्रय, अलुक् आदि अनावश्यक और भ्रमोत्पादक विभाग किये गये हैं, उन सभी को हटा दिया है।
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