अष्टादशस्मृति: 18 स्मृतियों का मूल, हिन्दी अनुवाद एवं विस्तृत भूमिका सहित – Astadasasmrtih (Set of 2 Volumes)

Original price was: ₹1,995.00.Current price is: ₹1,495.00.

Author-Editor/लेखक-संपादक Dr. Radhey Shyam Shukla
Language/भाषा
Sanskrit Text with Hindi Translation
Edition/संस्करण 2019
Publisher/प्रकाशक Pratibha Prakashan
Pages/पृष्ठ 982
Binding Style/बंधन शैली Hard Cover
ISBN 9788177024357

स्मृति साहित्य भारतीय आचार-विचार, संस्कार किंवा समग्र आर्य जीवन-शैली के संवाहक हैं। स्मृतियाँ हिन्दू समाज को सुगठित एवं व्यवस्थित संचालन हेतु विधि एवं निषेध की आचार संहिता हैं। स्मृति साहित्य में प्रमुखतया मनु तथा याज्ञवल्क्य की सार्वभौम प्रतिष्ठा है। इन आकर स्मृतिओं की रचना सर्व प्रथम हुई थी। तथापि देश, काल एवं परिस्थिति के अनुसार समय-समय पर अनेक स्मृतिओं की रचना होती रही, परिणामतः कुल स्मृतिओं की संख्या शताधिक तक पहुंच जाती है।

प्रतिष्ठा प्राप्त मनु एवं याज्ञवल्क्य स्मृति के अनेकों संस्करण संस्कृत टीकाओं तथा हिन्दी अनुवाद के साथ उपलब्ध हैं; किन्तु प्रायः शेष स्मृतियों पर टीकायें अथवा उनका अनुवाद अत्यल्प हैं।

इसी की पूर्ति हेतु प्रमुख धर्मशास्त्रवेत्ता पं. मिहिर चन्द्र ने शताब्दी पूर्व अत्रि, पराशर, कात्यायन, शंखलिखित, बुध प्रभृति अट्ठारह गौण स्मृतियों को हिन्दी भाषा में अनुवाद सहित प्रकाशित करके पाठकों को सुलभ कराया था; किन्तु बहुत समय से यह संस्करण अप्राप्त था।

अष्टादशस्मृतिः का यह संस्करण पूर्व ग्रन्थ का ही दो भागों में पुनर्मुद्रित संस्करण है। इसमें संग्रहीत समस्त स्मृतिओं की परिचयात्मक विस्तृत भूमिका देकर पाठकों के लिए बोधगम्य बनाने का प्रयास किया गया है।

भूमिका

 वेदोऽखिलं धर्म मूलम् – धर्म का मूल वेद ही है – अर्थात् जो श्रुति तथा स्मृति से अनुप्राणित आचार, व्यवहार है वही धर्म है तथा श्रुति स्मृति विहितो धर्मः (वसिष्ठधर्मसूत्र १.४.६) जो श्रुति तथा स्मृति से अनुमोदित है वही धर्म है। श्रुति का अभिप्राय वेद से ग्रहण किया जाता है तथा स्मृति का अभिप्राय ईश्वर प्रदत्त, ऋषि दृष्ट अर्थात् वेद से इतर साहित्य है, जो मानव जीवन में उत्कृष्ट आचार-व्यवहार का निदर्शन करता हो। धर्म शब्द अपने में व्यापक अर्थ ग्रहण करता है धर्म शब्द के व्युत्पत्तिलब्ध अर्थ से इसकी व्यापकता स्वतः स्पष्ट हो जाती है

‘ध्रियते लोकः अनेन’ अर्थात् लोक को धारण करने वाला धर्म कहलाता है।

‘धरति धारयति वालोकम्’ – अर्थात् धर्म वह है जो संसार को धारण करता है।

‘ध्रियते लोक यात्रा निर्वाहनार्थं यः स धर्मः’ सभी के द्वारा लोकयात्रा (जीवन यात्रा) के निर्वहन हेतु जो स्वीकार्य हो वह धर्म है।

महाभारत में धर्म के व्यापकत्व को ग्रहण करते हुये उसकी अद्भुत परिभाषा दी गई है

धारणाद्धर्ममित्याहुः धर्मोधारयते प्रजाः।

यस्याद्धारण संयुक्तं स धर्ममिति निश्चयः।। -महा०, कर्ण०, ६९.५८

अर्थात् धारण करने के कारण ही इसे धर्म कहा गया है। धर्म प्रजा को धारण करता है जो धारण से संयुक्त हो वही धर्म है।

अभिप्राय यह है कि जो किसी जाति विशेष के आचार-विचार, रहनसहन, खाद्य-अखाद्य, सभ्यता-संस्कृति किंवा उच्चादर्श सम्पन्न समग्र जीवन प्रणाली को अभिव्यक्त करता है वही धर्म है। वस्तुत: श्रुति-स्मृति दोनों तत्वत: एक ही हैं। जन सामान्य के अर्थबोध हेतु वेदों के व्याख्यान स्वरूप स्मृतियों का प्रणयन किया गया। इसी तथ्य की पुष्टि वृहस्पति स्मृति के निम्न कथन से होती है

श्रुतिस्मृती चक्षुषी द्वे द्विजानां न्यायवर्त्मनि।

मार्गे मुह्यन्ति तद्धीनाः प्रपतन्ति पथश्च्युताः।। (वृह० स्मृति, व्यव०का०)

अर्थात् मनुष्यों (द्विजातियों) के लिये श्रुति तथा स्मृति मानव शरीर के दो नेत्रों की भाँति है। नेत्रों से सम्यक् प्रकार देखते हुये चलने से व्यक्ति ठीक प्रकार से अपने मार्ग को प्रशस्त कर पाता है और ठीक से न देखने पर व्यक्ति मार्ग से गिर जाता है।

जीवन के इन्हीं उच्च मानदण्डों को निदर्शित करने वाले वाङ्मय को धर्मशास्त्र कहा गया है। धर्मशास्त्र की परिभाषा मनु ने इस प्रकार की हैश्रुतिस्तु वेदो विज्ञेयो धर्मशास्त्रं तु वै स्मृतिः। (मनु० २.१०) अर्थात् श्रुति में चारों वेद को तथा स्मृति शब्द से समग्र धर्मशास्त्र वाङ्मय को ग्रहण किया जाता है। श्रुति श्रवण-परम्परा से प्राप्त ज्ञान का द्योतक है जबकि स्मृति स्मरण परम्परा-प्राप्त वाङ्मय की बोधक है।

धर्मशास्त्र वाङ्मय के अन्तर्गत सूत्र-साहित्य तथा स्मृति ग्रन्थों का परिगणन किया जाता है। सूत्र-साहित्य का परिगणन वैदिक वाङ्मय में करते हुये इसे षड्वेदाङ्ग में कल्प के नाम से अभिहित किया गया है शिक्षाकल्पोव्याकरणं निरुक्तंछन्दज्योतिषम्। षड्वेदाङ्ग के अन्तर्गत शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द तथा ज्योतिष को ग्रहण किया जाता है। वैदिक वाङ्मय में कल्प का अर्थ है- कल्पोवेदविहितानां कर्माणामानुपूर्वेण कल्पना शास्त्रम् (ऋग्वेद प्राति०) अर्थात् वेद विहित कर्मों को व्यवस्थित करने वाले ग्रन्थ को कल्प शास्त्र कहा जाता है। कल्पसूत्रों को चार श्रेणियों में विभाजित किया गया है

(१) श्रौतसूत्र : श्रौत अग्नि से सम्पादित होने वाले विशालयज्ञ का विवेचन करने वाले ग्रन्थों को – श्रौतसूत्रों के अन्तर्गत रखा गया है जिनमें आपस्तम्ब श्रौतसूत्र, द्राह्यायण श्रौतसूत्र, भारद्वाज श्रौतसूत्र, आश्वलायन श्रौतसूत्र, बौधायन श्रौतसूत्र, शाङ्खायनश्रौतसूत्र, कात्यायन श्रौतसूत्र, वैखानसश्रौतसूत्रम्, लाट्यायन श्रौतसूत्रम् आदि प्रमुख है।

(२) गृह्यसूत्र : गृह्यग्नि से सम्पादित होने वाले गृहयज्ञ, उपनयन तथा विवाह आदि का विवेचन गृह्य सूत्रों में किया गया है जिनमें पारस्कर गृह्यसूत्र, आश्वलायन गृह्यसूत्र, गोभिल गृह्यसूत्र आदि आते हैं।

(३) धर्मसूत्र : वर्णाश्रम व्यवस्था में सम्पादित होने वाले धार्मिक कृत्यों तथा राजधर्म का विवरण धर्मसूत्रों का विषय वस्तु है। धर्मसूत्रों में प्रमुखतया गौतम, बौधायन, आपस्तम्ब, हिरण्यकेशिन तथा वसिष्ठ धर्म सूत्र आदि हैं।

(४) शुल्बसूत्र : यज्ञ सम्पादन के समय यज्ञवेदिका तथा मण्डप- निर्माण आदि की विधियों का विवेचन करने वाले सूत्रों को शुल्बसूत्र कहा गया है जिनमें बौधायन शुल्बसूत्र प्रमुख है। धर्म सूत्रों में मुख्यत: गौतम, बौधायन तथा आपस्तम्ब धर्मसूत्र सबसे प्राचीन स्वीकार किये गये हैं। इनमें अनेकानेक धर्मशास्त्रों तथा धर्मशास्त्रकारों का बहुश: उल्लेख किया गया है। कतिपय सूत्रकारों ने मनु आदि धर्मशास्त्रकारों (स्मृतिकारों) के मतों का भी उल्लेख किया है।

ध्यातव्य है कि कल्पसूत्र या सूत्रग्रन्थ वस्तुत: वैदिक वाङ्मय तथा स्मार्त साहित्य दोनों से सम्बद्ध हैं। एक ओर सूत्रग्रन्थों का षडङ्ग वेदाङ्ग में परिगणन किया जाता है तो दूसरी ओर समस्त स्मृति साहित्य का विषयवस्तु सूत्र साहित्य का ही कारिका बद्ध (श्लोक बद्ध) रूप है। हम यह भी कह सकते हैं किं स्मृतियाँ सूत्र ग्रन्थों का श्लोक बद्ध रूप हैं। इसी कारण धर्मशास्त्र के अन्तर्गत सूत्र और स्मृति दोनों की गणना होती है किन्तु संकुचित अर्थ में धर्मशास्त्र से केवल स्मृति साहित्य का बोध रूढ हो चुका है।

INDEX:

Reviews

There are no reviews yet.

Only logged in customers who have purchased this product may leave a review.