प्राक्कथन
वेद विश्वसाहित्य की प्राचीनतम निधि हैं। ऋषियों ने अपनी प्रातिभ दृष्टि से जिस ज्ञानराशि का साक्षात्कार किया, उसे वेद कहा जाता है। वेद के विषय में मान्यता है कि जिन तत्वों का ज्ञान अन्य सांसारिक साधनों से संभव नहीं है, उनका ज्ञान वेद से हो सकता है।
प्रत्यक्षेणानुमित्या वा यस्तूपायो न विद्यते।
एनं विदन्ति वेदेन तस्माद् वेदस्य वेदता।।
निस्सन्देह वेद भारत की संस्कृति के प्राचीनतम निदर्शन हैं। वेद को आधार बना कर ही धर्म, दर्शन, अध्यात्म, विज्ञान, कला और साहित्य के क्षेत्र में भारत ने असाधारण उपलब्धि की है।
ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद-ये चार वैदिक संहिताएँ हैं। सामान्यत: अथर्ववेद को तीनों वैदिक संहिताओं में परवर्ती मान लिया जाता है, पर यह सम्भव है कि इसके अनेक सूक्त ऋग्वेद के समान या उससे भी प्राचीन हों। डॉ० सूर्यकान्त (१९६४: ०३) ने अथर्ववेद को यजुर्वेद से प्राचीन माना है। उन्होंने अथर्ववेद के छन्दों की विशृंखलता, व्याकरणविषयक अव्यवस्था तथा भाषा की अनगढ़ता की चर्चा की है। ये स्थितियाँ भी अथर्ववेद के बहुसंख्य सूक्तों के अतिप्राचीन होने की द्योतक कही जा सकती हैं। वस्तुत: अथर्ववेद त्रयी या तीन संहिताओं के ही समान प्राचीन है। ऐतरेय ब्राह्मण और गोपथ ब्राह्मणों में इसका उल्लेख है। ज्ञान तथा चिंतन की दृष्टि से अथर्ववेद भारतीय वाङ्मय की सर्वथा प्रामाणिक कृतियों में एक है इसीलिये प्राचीन काल से ही इसकी एक संज्ञा ब्रह्मवेद भी रही है। गोपथ में कहा गया है—चत्वारो वा इमे वेदा ऋग्वेदो यजुवेदः सामवेदो ब्रह्मवेदः।
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