वैदिकवाङ्मय प्रायश्चित्तधर्ममीमांसा एवं दण्डविधान

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Concept of Expiation and Punishment in Vedic Literature

Author-Editor/लेखक-संपादक
Roop Kishore Shastri
Language/भाषा
Hindi
Edition/संस्करण
2010
Publisher/प्रकाशक
Pratibha Prakashan
Pages/पृष्ठ
294
Binding Style/बंधन शैली
Hard Cover
ISBN
9788177022339

ग्रन्थीयम्

वैदिक चिन्तन में जीवन के समस्त पहलुओं के आकलन में कर्म को प्रधानता दी गई है अर्थात् परोक्षापरोक्ष स्थिति में नित्य-नैमित्तिककाम्य के अन्तर्गत सञ्चित-प्रारब्ध-क्रियमाण कर्मत्रय से प्रसूतभाव की अनवरतता का प्रतिफलन समस्त जीवन व्यवहार है। मानव उक्तविध कर्म में पूर्णतः स्वतन्त्र है, फलतः विवेकाविवेक में अवगतानवगत कर्मों का होना स्वाभाविक है। मानवता प्रतिकूल विधीयमान कार्यों के निराकरण हेतु ऋषियों ने वेदानुकूल प्रायश्चित्तविधानों को स्थापित किया ताकि मानवीय संस्कृति को स्वस्थतया व्यवहृत किया जा सके यह नितान्त स्वविवेक पर आश्रित रहा है। उक्त विधानानुसार प्रायश्चित्त कर दुष्ट कर्मों एवं अवैदिकता को दूर किया जा सके, इनके अभाव में कालान्तर में दण्डों का विधान किया गया। अनपेक्षित एवं अपेक्षित कर्माशयजन्य सुख-दुःखात्मक फलों का वारण करना ही उक्त ग्रन्थ का मन्तव्य है जो मोक्षप्राप्ति के प्रमाणों में सुतराम सहाय्य का उपाय बताना एवं दिशा देना ही उक्त ग्रन्थ का मूल ध्येय है। उस प्रायश्चित्त अवधारणा का ही प्रधानोद्देश्य समाज में व्याप्त विशृंखलता, अन्याय एवं पातकों से निवृत्तमार्ग को प्रशस्त करता है।

CONTENT:

पुरोवाक्

वैदिक मनीषा के अन्तर्गत वेद की आचार-संहिता, सिद्धान्त, विद्याएं एवं कसौटियाँ अपौरुषेय मानी गयी हैं। इन्हीं विद्याओं एवं कसौटियों का विस्तृत आयाम देखने को मिलता है वैदिक वाङ्मय में, जहाँ साक्षात्कृतधर्मा एवं आप्त ऋषियों ने मानव कल्याणार्थ उनकी परिणति एवं क्रियान्वितता को लागू किया था वैयक्तिक एवं सामाजिक जीवन में। उन्हीं कसौटियों में एक कसौटी है प्रायश्चित्तधर्म, जिसका उल्लेख वेदों में है तथा पश्चाद्वर्ती वाङ्मय में पर्याप्त विश्लेषण हुआ है। इस कसौटी की क्रियान्विती किसी दुरित, अपराध, त्रुटि अथवा पाप होने पर मानी गई है। यद्यपि मानव ने पर्याप्त सांहितेय ऋचाओं में प्रार्थनाएं एवं स्तुतियाँ की हैं, दुरित, पाप, अघों इत्यादि से दूर रहने की, परन्तु यदि जाने अनजाने में ऐसा कोई मानवीय आचरण विरुद्ध कार्य हो जाय तो उसके लिए इसी शाश्वत निकष प्रायश्चित्त पर अपने को कसकर शुद्ध, पवित्र एवं अन्य होकर अपनी पूर्ववत् जीवन स्थिति अवधारणा में लाने का प्रयास किया 3- धा। यह अवधारणा आत्मानुमोदित आधारित रही है। व्यक्ति को अपने एवं त्रुटियों का बोध होना प्रायश्चित्त का प्रथम सोपान तथा शास्त्रोक्त – व्रतानुष्ठान उसकी दोषप्रवृत्तिनिरोध में प्रधान भूमिका अथवा अन्तिम पान कहा गया है। दुष्टप्रवृत्तियों एवं दुर्विचारों पर सतत नियन्त्रण हेतु इससे बड़कर अन्य कोई ऐसा सर्वस्वीकृत सर्वश्रेष्ठ उपाय नहीं है। इसे ऋषियों एवं शास्त्रकार आचार्यों ने विस्तृत मान्यता प्रदान की है। यह नितान्त स्वात्मकेन्द्रित वं निष्ठा पर अवलब्धित रहा है। इसके अभाव में समाज एवं राज्य ने दण्ड के क में क्रियान्वयन करने की व्यवस्था अपनायी है, जो अद्यावधि प्रचलित है।

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